Wednesday, August 1, 2012

ज़बाँ ख़ामुशी है उसकी

चाँदनी रातोँ के हसीन हल्के उजालोँ में
उसने देखा था आवाज़ोँ को गली के मोड़ से जाते हुए
तब से सन्नाटा सा पसरा है शहर मेँ
उसने बहुत चाहा कि जाने वालोँ का तआकुब हो
बड़ी तफ़्तीशेँ हुईँ
बड़ी तहरीरेँ हुईँ
पर बयान दर्ज हो न सका उसका
कि....
ज़बाँ ख़ामुशी है उसकी

मामला ये है कि ख़ुदा से ताज़ा-ताज़ा बँटवारा हुआ है मेरा...

मामला ये है कि ख़ुदा से ताज़ा-ताज़ा बँटवारा हुआ है मेरा...
ख़ुल्द से निकल आया हूँ मैँ और यह तय किया है उसने
कि.......
कहकशाँ सब उसकी
अश्कबार मिज़गाँ मेरी
आसमाँ तमाम उसके
ज़मीनेँ कुछ मेरी...
ज़मीनोँ पै भी ये शर्त
कि....
दश्त सब उसके
सहरा तमाम मेरे
वादियाँ सब उसकी
कोहसार मेरे
दरिया सब उसके
साहिल मेरे
सीपियाँ-ओ-मोती उसके
ख़ाली समंदर मेरा
सनम सब उसके
बस बुतख़ाना मेरा.....

ये ख़ाकानवीस बड़ा चालाक निकला...

पानी की आक़बत ठहरने मेँ नहीँ है

पानी की आक़बत ठहरने मेँ नहीँ है
जो दरिया मिजाज़ है तो रवानी बनाये रख

दौर कैसा भी हो वक़्त भुला देता है यहाँ
जो याद मेँ रहना है तो कोई कहानी बनाये रख

ज़ईफ़ पत्तोँ को शाख़ेँ खुद जुदा कर देती हैँ
जो कुर्ब चाहे तो जवानी बनाये रख

मील का पत्थर राहरौ को मंज़िल पे ले जाता है
जो सबाब चाहे तो राहपैमा के लिये कोई निशानी बनाये रख

ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख...

ऐ बशर....
अपने होठोँ पे इक दुआ रख
तन्हाई मेँ इक हमनवा रख
दर्दमंदोँ से रिफ़ाकत का रवा रख
गुलोँ सी महके जो ऐसी हवा रख
क्यूँकि.....
टिक के कुछ कभी रहता नहीँ....
न छत...
न बाम...
न दर...
न दीवार...
न रिश्ता...
न रिफ़ाकत...
न राब्ता...
वक़्त के चनाब मेँ सब रवाँ दवाँ
और...
ऐसे मौसम मेँ सर झुका सके सामने जिसके
पास अपने वो ख़ुदा रख
ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख....