Wednesday, August 1, 2012

ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख...

ऐ बशर....
अपने होठोँ पे इक दुआ रख
तन्हाई मेँ इक हमनवा रख
दर्दमंदोँ से रिफ़ाकत का रवा रख
गुलोँ सी महके जो ऐसी हवा रख
क्यूँकि.....
टिक के कुछ कभी रहता नहीँ....
न छत...
न बाम...
न दर...
न दीवार...
न रिश्ता...
न रिफ़ाकत...
न राब्ता...
वक़्त के चनाब मेँ सब रवाँ दवाँ
और...
ऐसे मौसम मेँ सर झुका सके सामने जिसके
पास अपने वो ख़ुदा रख
ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख....

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