ताजमहल...
कहने भर को तो नाम शाहजहाँ का था
असल मेँ वो काशाना तो किसी संगतराश का था
वो जिसकी मीनारोँ पर उसकी उंगलियोँ के लम्स थे
वो जिसकी गुम्बदोँ पर जमी गर्द उसकी साँसोँ से उड़ी थी
वो जिसके चबूतरोँ ने उसके पसीने से ग़ुस्ल किया था
वो जिसे कहीँ समन की घनी छाँव नहीँ मिली थी
वो जिसकी शामेँ साल-हा-साल वहीँ ढ़लीँ थीँ
वो जिसकी उँगलियोँ मेँ गुल-ए-संग तराशने मेँ काँटे चुभे थे
वो जिसकी मेहनत के नक़्श पत्थरोँ पर खुदे थे
वो बता रही थी जिसकी हर डूबती नफ़स
कि बादशाह ने चाहा मिले उसे उम्र भर का कफ़स
कि वहाँ जहाँ इक परीजमाल शहजादी ख़ामोशी की कब्र मेँ सो रही थी
सुना है वहीँ कहीँ क़ायनात उसकी कटी उँगलियोँ पर चुपचाप रो रही थी......
कहने भर को तो नाम शाहजहाँ का था
असल मेँ वो काशाना तो किसी संगतराश का था
वो जिसकी मीनारोँ पर उसकी उंगलियोँ के लम्स थे
वो जिसकी गुम्बदोँ पर जमी गर्द उसकी साँसोँ से उड़ी थी
वो जिसके चबूतरोँ ने उसके पसीने से ग़ुस्ल किया था
वो जिसे कहीँ समन की घनी छाँव नहीँ मिली थी
वो जिसकी शामेँ साल-हा-साल वहीँ ढ़लीँ थीँ
वो जिसकी उँगलियोँ मेँ गुल-ए-संग तराशने मेँ काँटे चुभे थे
वो जिसकी मेहनत के नक़्श पत्थरोँ पर खुदे थे
वो बता रही थी जिसकी हर डूबती नफ़स
कि बादशाह ने चाहा मिले उसे उम्र भर का कफ़स
कि वहाँ जहाँ इक परीजमाल शहजादी ख़ामोशी की कब्र मेँ सो रही थी
सुना है वहीँ कहीँ क़ायनात उसकी कटी उँगलियोँ पर चुपचाप रो रही थी......
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