Friday, November 16, 2012

सुनो कि....

सुनो कि....
ये रेज़ा-रेज़ा ग़म
कुछ यूँ मिला लिया है मैंने क़तरा-क़तरा लहू में .....
कि अब सब गहरे लाल रंग का है...

सुनो कि....
वो बस्तियाँ सब रिफ़ाकतों की,जो पिछले कई हादसों में खंडहर हो गयीं थीं ....
उन्हीं के किसी मोड़ पै इक सब्ज़ा गुलमोहर का लहलहा रहा है इन दिनों....
यूँ लगता है शायद अबके कुछ सालों
में परिंदे भी आ जायें....
सुनो कि....
वो सब लिबास,क़बाऐं जो फूलों ने उतार दिए थे पिछले बरस...
सब के सब अबकी बरसात
में ज़मीं ने पानी के साथ जज़्ब कर लिए हैं ....
महक मिट्टी की अबके दूर तक फैलेगी...
सुनो कि....
वो सब लम्स,दस्तकें जो दरवाज़ों से चिपकी पड़ीं हैं यहाँ ,जो सुनाई नहीं पड़तीं...
लगातार सुनने की कोशिश में हूँ,कि घड़ी भर सीने में रुके धड़कन,तो सुन पाऊँ भी...
सुनो कि....
गुज़रे सालों में ये जो बहुत वजन बढ़ा लिया है तुमने..
कि अलग-अलग नाप के तुम्हारे लिबास...
यूँ अब पहली शब के चाँद से लेकर चौदहवीं शब के चाँद को दुरुस्त बैठ जाते हैं...
सुनो कि....
ये सब सुनने के लिए शुक्रिया!!!!

Wednesday, October 31, 2012

उफ़ मुहब्बत कितनी संगीन होती है!!!!!!!

वो राजा कि मैना थी...सिर्फ़ राजा देखा करता था उसे......
नर्गिस के फूलोँ मेँ रहा करती थी वो....
सुबह-शाम नर्गिस की महक मेँ महकती थी वो...
ये महक राजा को बहुत भाती थी...
वो तरह-तरह के नग्मे गाती थी राजा के वास्ते...
हजार बरस के आस-पास थी मैना पर बड़ी जवान थी... लोग कहते हैँ चरक सहिंता सरहाने लगा के सोती थी मैना....

पर उम्र के नौ सौ निन्यानवे साल और तीन सौ चौँसठवेँ दिन राजा ने मैना को मरवा दिया... अगल
े दिन वो हज़ार बरस की जो हो जाती!!!!

और राजा जानता था कि...
"हज़ार बरस नर्गिस अपनी बेनूरी पै रोती है
तब जा कर कहीँ चमन मेँ होता है दीदावर पैदा"
गर कोई दीवाना आ जाता चमन में औ मैना को देख लेता तो...

उफ़ मुहब्बत कितनी संगीन होती है!!!!!!!

साहिब.... ये तमन्नाओँ का शहर है

रंज बिकता है यहाँ
तो शादमानी भी
ख़्वाब बिकता है यहाँ
तो निगहबानी भी
ज़मीँ बिकती है यहाँ
तो धूप आसमानी भी
ख़ार बिकता है यहाँ
तो रात की रानी भी
क़रार बिकता है यहाँ
तो बेक़रारी भी

इंसाँ बिकता है यहाँ
तो ख़ुदा मजहबी भी

साहिब....
ये तमन्नाओँ का शहर है
गर चुका सको दाम तो जो जी चाहे खरीद लो

Wednesday, September 12, 2012

इस दिल की नगरी मेँ

इस दिल की नगरी मेँ हमने कैसे-कैसे काशाने बनाये
कुछ वक़्त की गर्द मेँ डूबे,कुछ तोड़े ख़ुद और बहाने बनाये

आसमाँ तो तमाम है उड़ने के वास्ते खुला हुआ
वापसी को फिर भी हमने दरख़्तोँ पै आशियाने बनाये

हाल-ए-अहबाब यूँ निभाया समंदर से हमने
तूफ़ानोँ मेँ भी साहिल पै घरोँदे बनाये

सब रौशनी ले गया अपने कारवाँ के साथ अमीर-ए-कारवाँ
हमने उजाले मेँ सितारोँ के अपने रास्ते बनाये

Wednesday, August 1, 2012

ज़बाँ ख़ामुशी है उसकी

चाँदनी रातोँ के हसीन हल्के उजालोँ में
उसने देखा था आवाज़ोँ को गली के मोड़ से जाते हुए
तब से सन्नाटा सा पसरा है शहर मेँ
उसने बहुत चाहा कि जाने वालोँ का तआकुब हो
बड़ी तफ़्तीशेँ हुईँ
बड़ी तहरीरेँ हुईँ
पर बयान दर्ज हो न सका उसका
कि....
ज़बाँ ख़ामुशी है उसकी

मामला ये है कि ख़ुदा से ताज़ा-ताज़ा बँटवारा हुआ है मेरा...

मामला ये है कि ख़ुदा से ताज़ा-ताज़ा बँटवारा हुआ है मेरा...
ख़ुल्द से निकल आया हूँ मैँ और यह तय किया है उसने
कि.......
कहकशाँ सब उसकी
अश्कबार मिज़गाँ मेरी
आसमाँ तमाम उसके
ज़मीनेँ कुछ मेरी...
ज़मीनोँ पै भी ये शर्त
कि....
दश्त सब उसके
सहरा तमाम मेरे
वादियाँ सब उसकी
कोहसार मेरे
दरिया सब उसके
साहिल मेरे
सीपियाँ-ओ-मोती उसके
ख़ाली समंदर मेरा
सनम सब उसके
बस बुतख़ाना मेरा.....

ये ख़ाकानवीस बड़ा चालाक निकला...

पानी की आक़बत ठहरने मेँ नहीँ है

पानी की आक़बत ठहरने मेँ नहीँ है
जो दरिया मिजाज़ है तो रवानी बनाये रख

दौर कैसा भी हो वक़्त भुला देता है यहाँ
जो याद मेँ रहना है तो कोई कहानी बनाये रख

ज़ईफ़ पत्तोँ को शाख़ेँ खुद जुदा कर देती हैँ
जो कुर्ब चाहे तो जवानी बनाये रख

मील का पत्थर राहरौ को मंज़िल पे ले जाता है
जो सबाब चाहे तो राहपैमा के लिये कोई निशानी बनाये रख

ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख...

ऐ बशर....
अपने होठोँ पे इक दुआ रख
तन्हाई मेँ इक हमनवा रख
दर्दमंदोँ से रिफ़ाकत का रवा रख
गुलोँ सी महके जो ऐसी हवा रख
क्यूँकि.....
टिक के कुछ कभी रहता नहीँ....
न छत...
न बाम...
न दर...
न दीवार...
न रिश्ता...
न रिफ़ाकत...
न राब्ता...
वक़्त के चनाब मेँ सब रवाँ दवाँ
और...
ऐसे मौसम मेँ सर झुका सके सामने जिसके
पास अपने वो ख़ुदा रख
ऐ बशर अपने होठोँ पे इक दुआ रख....

Wednesday, July 25, 2012

नज्मे-साक़िब आसमाँ से बड़ा फ़र्द गुज़रेगा

उठाये ले जाते हो मुझे दर-ए-तन्हाई से
देखना हमपे अगला ज़माना यहाँ बड़ा सर्द गुज़रेगा

किसी के पाँव का एक भी निशाँ नहीँ यहाँ
देखना कोई आबला पा इसी शहर से लिये दर्द गुज़रेगा

खिज़ाँ के तौर-तरीके कभी बदलते नहीँ
देखना इस बार भी हवा के साथ बड़ा गर्द गुज़रेगा

सजाये रह जाओगे तुम इधर महफ़िल-ए-अंजुम
देखना उधर नज्मे-साक़िब आसमाँ से बड़ा फ़र्द गुज़रेगा

Thursday, July 12, 2012

मैं तो जुगनू हूँ

मैं तो जुगनू हूँ घड़ी भर चमकूँगा फिर बुझ जाऊँगा
तुम तो खुर्शीद हो नकाबों में ख़ुद को छुपाओगे कब तक

चमन है ये खिंज़ाअफज़ाई पुराना दस्तूर है इसका
तुम इस गुलाब को ज़र्द होने से बचाओगे  कब तक

जिधर देखिये यहाँ रंज-ओ -मुसीबत है उस ओर
तुम मीर-ओ -ग़ालिब के दीवान से ख़ुद को बहलाओगे  कब तक

वो तो बड़ा  ख़ुदापरस्त है अंधेरों में भी सब को पहचान लेता है
तुम उजालों में उससे खुद को छुपओगे  कब तक

ज़रा-ज़रा सी बात पर उसकी आँख भर आती है
तुम नाराज़गी में उससे नज़र मिलाओगे  कब तक

Saturday, July 7, 2012

ताजमहल...

ताजमहल...
कहने भर को तो नाम शाहजहाँ का था
असल मेँ वो काशाना तो किसी संगतराश का था
वो जिसकी मीनारोँ पर उसकी उंगलियोँ के लम्स थे
वो जिसकी गुम्बदोँ पर जमी गर्द उसकी साँसोँ से उड़ी थी
वो जिसके चबूतरोँ ने उसके पसीने से ग़ुस्ल किया था
वो जिसे कहीँ समन की घनी छाँव नहीँ मिली थी
वो जिसकी शामेँ साल-हा-साल वहीँ ढ़लीँ थीँ
वो जिसकी उँगलियोँ मेँ गुल-ए-संग तराशने मेँ काँटे चुभे थे
वो जिसकी मेहनत के नक़्श पत्थरोँ पर खुदे थे
वो बता रही थी जिसकी हर डूबती नफ़स
कि बादशाह ने चाहा मिले उसे उम्र भर का कफ़स
कि वहाँ जहाँ इक परीजमाल शहजादी ख़ामोशी की कब्र मेँ सो रही थी
सुना है वहीँ कहीँ क़ायनात उसकी कटी उँगलियोँ पर चुपचाप रो रही थी......

Thursday, June 21, 2012

तेरा ग़म....

तेरा ग़म....
तस्बीह के दाने सा सो आँख से गिरने न दिया
सुना है वो समन्दरोँ के भी हिसाब रखता है
इसी वास्ते दरपेश खुदा के ये सैलाब रख दिया

वो रोज़ मिलता है

वो रोज़ मिलता है हमसे
पर शायद अब उससे कोई पहचान नहीँ

उसी शिद्दत से देखे है वो आज भी
पर शायद उसके सीने मेँ अब वो ईमान नहीँ

बड़ा फ़रिश्तोँ सा हुआ जाता है वो जमाने को
पर शायद उसमेँ अब कहीँ कोई इंसान नहीँ।।।

इस तन्हाई मेँ ये कौन है

इस तन्हाई मेँ ये कौन है जो चला आता है शमादान लिये यादोँ के
हम तो सालोँ पहले तर्को ताल्लुक करके चले थे ये कौन ख़ुदा है जो खैँचता है दामन दायरोँ मेँ वादोँ के
ये फ़ाख़्ता भले ही पर शिकस्ता हो प बैठी है कोहसारोँ पर इरादोँ के...

Monday, March 26, 2012

ये सारे उजाले के धुएं

ये सारे उजाले के धुएं
तुम ने अपनी पलकों से क्यूँ पोछें हैं
ये वक़्त की पीठ पर जो भी थे निशाँ
तुम ने अपने हाथों से क्यूँ पोछें हैं
दरिया की तरह हो आड़े टेढ़े जिनके जवाब
ऐसे सारे सावल तुमने मुझसे ही क्यूँ पूछे हैं