Tuesday, May 31, 2011

मैं जान पाऊं तुम्हें

देखा सुना सा कुछ भी नहीं 
यहाँ सब का ग़म अपना निज़ी हुआ करता है
मैं जान पाऊं तुम्हें आखिर तक 
या तुम जान सको मुझको
ये तो मुमकिन ही नहीं है
यहाँ तो दरमियाँ खुदाओं के भी 
इक पर्दा सा हुआ करता है

Friday, May 27, 2011

वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा

वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा 
इस फ़रारी में मेरा सर धुनता है 

करेगा इक रोज़ ये चाँद भी ख़ुदकुशी 
जो आज आसमाँ पर बैठ कर ख्वाब बुनता है 

सब निगल जायेगा साहिलों से अबके 
कोई इस समन्दर का शोर सुनता है 

समझता हूँ सिर्फ उसे मैं, कि ग़म या कि वो ख़ुदा
जो गली के मोड़ पर बैठा फ़कीर गुनता है 

वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा 
इस फ़रारी में मेरा सर धुनता है 

नज़्म

फूलों ने, आँखों ने, निगाहों ने, तमन्ना ने
देखा है उनका हसीं जमाल 
साए भी ठहर कर नज़र देखते हैं 
जुगनू भी रुक रुक कर पलक देखते हैं
देखा है फरिश्तों ने भी छुप छुप
उनका जलवा-ए- बेमिसाल 
ख़ामोशी भी उनकी महकती है गुलाबों सी
चलो आज बात कर के भी देखते हैं 
कैसा है उनकी बातों में कमाल  

Thursday, May 26, 2011

ये यकीं है मुझको

ये यकीं है मुझको 
नदी के पुल के उस पार तुमने लगाया था जो 
वो गुलमोहर इस साल कुछ और जवां हुआ होगा 
उतरे जो ये सैलाब,तो उस पार देख लूं 
शाम यहाँ कुछ कुछ तन्हा हो कर गुज़रती है 
सोचता हूँ माजरा-ए-ग़म पूछ लूं 
जो आये कभी चाँद के साथ इस ओर
तो पेश्तर राह रोक के देख लूं 
मुमकिन तो नहीं जुदाई सबसे 
वगरना जी तो चाहे हर ओर से मुँह फेर लूं  

Tuesday, May 17, 2011

तुमको लिखूँ कुछ तो

तुमको लिखूँ कुछ तो यूँ ही
तमन्ना चुपचाप हुए जाती है 

न लिखूँ कुछ तो यूँ भी 
बेज़ा शोर सा मचाती है

इक घड़ी की रात है अब बाकी
जाते हुए मेरे दामन पै ठहर जाती है 

ये अश्क-ए-पैमाने की नहर साक़ी
यूँ ही चुपचाप रवां हुए जाती है


Thursday, May 12, 2011

ये तरतीब पसंद आये तो कहिये

इन अंधेरों के हसीं अफ़साने 
उजालों की सियाही से लिख रहा हूँ 

जुगनूओं कि इक सफ़ह से 
 बादाहाखाना रौशन कर रहा हूँ 

ये तरतीब पसंद आये तो कहिये 

अगले जुमे नए ख्वाब के साथ आने का अहद कर रहा हूँ


Tuesday, May 10, 2011

ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ?


ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ? 
कल रात तो चांदनी थी, वो गिरा क्यूँ है ?

इक लम्हा मुस्कुराता हुआ तुमने आँखों में बंद किया था कल 
तुम्हारी आँखों से आज ये अश्क का कतरा गिरा क्यूँ है?

तुम्हारे लफ्ज़ तो आतिशजुबाँ होते थे 
ये ख़ामोशी सी तुम्हारे शहर में क्यूँ है? 

हर रात कुछ उफ़क पर चमकता तो है 
हर सुबह ये शोला सा ढलता क्यूँ है?

तन्हाई की बाहों में सिमट कर चलना 
महफ़िल में ये नया चलन सा क्यूँ है?

खामोश रहें " शौक" तो सरगोशियाँ सी सुनाई पड़ती हैं
खामोशियों और आवाज़ में अज़ल से राब्ता क्यूँ है?

सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये


सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
कि  इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे

बर्ग-ए- आवारा सा सफ़र न वापस लाया तुम्हें
कि अब तो इन लचकती शाख़ों से जलन होती है मुझे

दम घुटता है, मुश्किल है साँस लेना अब
कि इन महकती फ़िज़ाओं से घुटन होती है मुझे

इन झीलों, सहराओं, औ शादाब बागीचों में भी कुछ नहीं
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे


सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये


सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये 
इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे

बर्ग-ए-आवारा सा सफ़र न वापस लाया तुम्हें 
अब तो इन लचकती शाखों से जलन होती है मुझे 

दम घुटता है , मुश्किल है साँस लेना अब
इन महकती फिज़ाओं से घुटन होती है मुझे
 
इन झीलों, सहराओं, औ शादाब बागीचों में भी कुछ नहीं 
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे

यूँ तेरे पहलू-ए-ख्वाब से उठ कर

यूँ  तेरे पहलू-ए-ख्वाब से उठ कर 
ज़माना कई बार सोया है नींद से उठ कर 


वो जो आये थे हवाओं पै खेतों से निकल कर 
उकता कर जा रहे  हैं अब शहर से उठ कर 


तज़्किरा शुरू हुआ जो वहाँ तेरा 
फिर न जा सका कोई भी महफ़िल से उठ कर 


चर्चा था कि शब-ए-माह होगी ज़मीं पर 
लोग देखते रहे तमाम रात छतों पै चढ़ कर 


सूख के फर्श पर खूँ-ए-ज़ख्म सोचता है 
दाग-ए-निस्बत क्या मिला तुझे रगों से उठ कर 

Monday, May 9, 2011

उसको चाहत है, तन्हाई है, तमन्ना है और गम भी 
वो जो खुद को शाख़

अनघ शर्मा
ये खून से रंगे हाथ नील में क्यों धो दिए? नील का सारा पानी लाल हो गया 
अब ये समंदर को भी लाल कर देगी 
पता है तुम्हें नील कितनी बड़ी है?  साढ़े छः हज़ार किलोमीटर 
नील छः हज़ार छः सौ पचास किलोमीटर लम्बी है . और यह समंदर में नहीं मेरे मन की गहरी खाइयों में 
गिरती  है. इसका पानी अब भी नीला ही है . खून का सब रंग इसके अन्दर चुपचाप बहता है 
मेरे दिल तक आने वाली हर नीली नस नील ही तो है जिस के अन्दर ये खून चुपचाप बहता है

कांच के नाज़ुक ख्वाब (नज़्म)

रात जब तुम सो रही थीं, एक कांच का ख्वाब पलकों से फिसल गया
हथेलियों पै थाम लिया मैंने , टूट जाता तो तुम्हें तकलीफ होती 
एक गुलाब, एक कैनवास, पेंटिंग ब्रुश, हरे रंग की आधी खाली शीशी, बैंगनी रंग की बन्द डिब्बी, 
एक दुपट्टा, कुछ चूड़ियाँ, और चाय का एक ग्लास जिससे मेरी फोटो दबा रखी थी 
उफ़! क्या क्या समेट के रखती हो ख्वाब में
गर फर्श पै गिर कर बिखर जाता, तो सुबह सब बीनने में दिक्कत होती तुम्हें
कांच के नाज़ुक ख्वाब पलकों पर टांग कर मत सोया करो गिरने का डर रहता है 
 







चंद शेर

                                                                  
इस रूह को खलिश सी होती है 
लो हम जिस्म उतारे देते हैं
................................

मेरी बेवफाई पै तंज न कीजे 
ज़हन-ओ-दिल की मसाइल है 

मेरी जुदाई पै रंज न कीजे
दहर-ओ-दस्तूर की मसाइल है 
........................................

हर रंजिश निगाह की धूप सी
हर आँसू निगाह के सुकून सा
...................................
ग़ज़ल की तरतीब बड़ी हसीन होती है
खुदा रहे जब मस्जिद तभी ज़हीन होती है 
.................................

चहेरों के आइनों की लिखावट बहुत ज़हीन थी
 वो रात थी खवाब की इसीलिए तो हसीन थी 
..............................

चेहरा ज़हीन रखना, लब पै गुलाब रखना 
पलकों से मिलते है खवाब कितने, सबका हिसाब रखना 
...............................


Sunday, May 8, 2011

खुदा का अक्स है मुझमे

खुदा का अक्स है मुझमे 
और तुम इंसान ढूंढ़ते हो

काबा सी मेरी ये दो आँखें 
और तुम इमां ढूंढ़ते हो 

तमाम रात  पै लम्स हैं 
और तुम लबों के निशान ढूंढ़ते हो


निगाह चाँद पलक

निगाह, चाँद, पलक कोई और बात होगी
तमाम सदी से सुलग रहा है आफ़ताब 
कहीं तो रात होगी
निगाह, चाँद, पलक कोई और बात होगी

धुंआ सा है इब्तिदा पर

धुंआ सा है इब्तिदा पर, इंतिहा तलक क्या होगा
दो क़दम पै ही दीख गया काबा, आखिर-ए-सफ़र तलक क्या होगा 

हुआ तो होगा यूँ भी की कभी मंजनू ने कहा होगा 
उफ़!! लैला इस ज़माने में कैस सा नाकाम कोई और क्या होगा 

सवाल-ए-चुप्पी पर लैला ने तहरीर दिया होगा 

देख ले कैस इन शादाब सी बेलों में लैला सा ज़र्द पत्ता कोई और क्या होगा 

धुंआ सा है इब्तिदा पर, इंतिहा तलक क्या होगा

Saturday, May 7, 2011

अब और न धागे सा उलझा मुझको

अब और न धागे सा उलझा मुझको 
जो खुदा है तो सुलझा मुझको 

है खबर मुझे भी की न गुजरेंगे अब बादल 
जो चाहे तो ज़माने की खुशी के लिए रुला मुझको 

यूँ तो निभ ही जाती फुरसतों से मेरी 
सवाल रोज़गार का याद आ गया मुझको

हर सिम्त है अँधेरा घुप सा 
जो रहबर है तो राह दिखा मुझको



चंद शेर

                                                                          

गर कुबूल हो जाये ये दुआ भी
जान लूँ हस्ती है कहीं तेरी खुदा भी
              ---------- 

न इश्क उन्हें ही था, न इश्क हमें ही था
ये सादा सा फरेब मगर साथ सालों रहा  
             -----------

इस आँख के दरिया में डूब के देखो 
इक धार सी सीधी जाती है दिल को
             ------------
ये स्याह सफ़ेद से रात दिन मुझे
दो हिस्सों में तकसीम दिए देते है 
            ----------

इस शमा को दलील-ए-सहर न समझना 
धुंए में आग भी होती है, बस धुँआ न समझना 

          -------------








आलम-ए-हिज्र औ तन्हाई का मौसम

आलम-ए-हिज्र औ तन्हाई का मौसम
उस पर से ये वक़्त था ठहरा 

पलकों पर भी नहीं रुक सकता था
उनका वो गम था बड़ा गहरा 

चाह के भी तारे न चमक पाए 
किस जोर से था रात का पहरा 


आगोश-ए- मुब्ब्हत में मुश्किल है बसर करना 
खिलते हुए फूलो में दीखता नहीं सहरा 



ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है

ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
जबकि अब भी वो खुदा सा है

सुनते है उनकी बातों में कोई असर नहीं
 अब भी जिनका हर लफ्ज़ दुआ सा है

देखिये ले जाएँ अबके बदगुमानियां कहाँ
इस राह पर हर सिम्त धुँआ सा है

आलम-ए- शौक, तमन्ना  और नर्गिस के फूल 
यकीं मनो उनका घर अब भी आग्रा सा है