यूँ तेरे पहलू-ए-ख्वाब से उठ कर
ज़माना कई बार सोया है नींद से उठ कर
वो जो आये थे हवाओं पै खेतों से निकल कर
उकता कर जा रहे हैं अब शहर से उठ कर
तज़्किरा शुरू हुआ जो वहाँ तेरा
फिर न जा सका कोई भी महफ़िल से उठ कर
चर्चा था कि शब-ए-माह होगी ज़मीं पर
लोग देखते रहे तमाम रात छतों पै चढ़ कर
सूख के फर्श पर खूँ-ए-ज़ख्म सोचता है
दाग-ए-निस्बत क्या मिला तुझे रगों से उठ कर
ज़माना कई बार सोया है नींद से उठ कर
वो जो आये थे हवाओं पै खेतों से निकल कर
उकता कर जा रहे हैं अब शहर से उठ कर
तज़्किरा शुरू हुआ जो वहाँ तेरा
फिर न जा सका कोई भी महफ़िल से उठ कर
चर्चा था कि शब-ए-माह होगी ज़मीं पर
लोग देखते रहे तमाम रात छतों पै चढ़ कर
सूख के फर्श पर खूँ-ए-ज़ख्म सोचता है
दाग-ए-निस्बत क्या मिला तुझे रगों से उठ कर
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