ये यकीं है मुझको
नदी के पुल के उस पार तुमने लगाया था जो
वो गुलमोहर इस साल कुछ और जवां हुआ होगा
उतरे जो ये सैलाब,तो उस पार देख लूं
शाम यहाँ कुछ कुछ तन्हा हो कर गुज़रती है
सोचता हूँ माजरा-ए-ग़म पूछ लूं
जो आये कभी चाँद के साथ इस ओर
तो पेश्तर राह रोक के देख लूं
मुमकिन तो नहीं जुदाई सबसे
वगरना जी तो चाहे हर ओर से मुँह फेर लूं
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