Tuesday, May 10, 2011

ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ?


ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ? 
कल रात तो चांदनी थी, वो गिरा क्यूँ है ?

इक लम्हा मुस्कुराता हुआ तुमने आँखों में बंद किया था कल 
तुम्हारी आँखों से आज ये अश्क का कतरा गिरा क्यूँ है?

तुम्हारे लफ्ज़ तो आतिशजुबाँ होते थे 
ये ख़ामोशी सी तुम्हारे शहर में क्यूँ है? 

हर रात कुछ उफ़क पर चमकता तो है 
हर सुबह ये शोला सा ढलता क्यूँ है?

तन्हाई की बाहों में सिमट कर चलना 
महफ़िल में ये नया चलन सा क्यूँ है?

खामोश रहें " शौक" तो सरगोशियाँ सी सुनाई पड़ती हैं
खामोशियों और आवाज़ में अज़ल से राब्ता क्यूँ है?

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