Tuesday, May 17, 2011

तुमको लिखूँ कुछ तो

तुमको लिखूँ कुछ तो यूँ ही
तमन्ना चुपचाप हुए जाती है 

न लिखूँ कुछ तो यूँ भी 
बेज़ा शोर सा मचाती है

इक घड़ी की रात है अब बाकी
जाते हुए मेरे दामन पै ठहर जाती है 

ये अश्क-ए-पैमाने की नहर साक़ी
यूँ ही चुपचाप रवां हुए जाती है


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