ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
जबकि अब भी वो खुदा सा है
सुनते है उनकी बातों में कोई असर नहीं
अब भी जिनका हर लफ्ज़ दुआ सा है
देखिये ले जाएँ अबके बदगुमानियां कहाँ
इस राह पर हर सिम्त धुँआ सा है
आलम-ए- शौक, तमन्ना और नर्गिस के फूल
यकीं मनो उनका घर अब भी आग्रा सा है
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