Thursday, November 3, 2011
Monday, October 3, 2011
पलकों के चेहरे
पलकों के चेहरे पढ़ना बड़ा मुश्किल है
हर बदलते ख़्वाब के साथ इनकी तस्वीर बदल जाती है
धूप में परछाइयों को समेट लो जिस्मों में
छाँव में इनकी तहरीर बदल जाती है
रात और चाँद के भी अजब रिश्ते हैं
चाँद के साथ साथ रातों की भी तासीर बदल जाती हैं
दिल-ओ-जाँ लोगों के हवाले यूँ न करो
बदलते वक़्त के साथ इनकी निगाहें भी बदल जाती हैं
इक बेलिबास सी आरज़ू
इक बेलिबास सी आरज़ू
दर्द लपेटे फिरती है
शब भर जला सितारों का शहर
रात अब ख़ाक समेटे फिरती है
राहों में खामोशियाँ कभी बोलती थी
अब तन्हाईयाँ चीखती फिरती हैं
Tuesday, August 9, 2011
शाम ,चाँद और ये नींद
सरे-शाम वक़्त की मुंडेर पर शाम चढ़ कर बैठ जाती है
पाँव लटकाए सुबह के सूरज से मिलती है, रात के चाँद से मिलती है
कोई कह दे फ़लक से जा कर समझाए, देर तक पाँव लटके रहें तो सूज जाते हैं
टुकड़े -टुकड़े में चटके हुए चाँद को वक़्त ने मशआल की तरह जला दिया है
रोज़ यूँ ही झीलों पर जलता रहता है
वक़्त को कोई कह दे कभी- कभी मशआल की लौ बुझा दिया करे
वरना मुसल्लत लौ से घिरे पानी के बर्तन सूख जाते हैं
रोज़ रात को आँखों में नींद के आने का वादा रहता है लम्बी साअत के दोस्तों की तरह
जो आने के वादे पर कभी आ नहीं पाते.......
ऐसे ही वक़्त पर नींद नहीं आती
ख़्वाबों से मिले इक सदी जैसा वक़्त हुआ हो ............... अब बिना चश्मा लगाये पढना सीखना पढ़ेगा, पढ़ते-पढ़ते बेवक्त की नींद में चश्मे के कांच से टकरा कर ख्वाब लौट जाते हैं
शाम ,चाँद और ये नींद बेवजह ही खुद पर ज़ुल्म किये जाते हैं
पाँव लटकाए सुबह के सूरज से मिलती है, रात के चाँद से मिलती है
कोई कह दे फ़लक से जा कर समझाए, देर तक पाँव लटके रहें तो सूज जाते हैं
टुकड़े -टुकड़े में चटके हुए चाँद को वक़्त ने मशआल की तरह जला दिया है
रोज़ यूँ ही झीलों पर जलता रहता है
वक़्त को कोई कह दे कभी- कभी मशआल की लौ बुझा दिया करे
वरना मुसल्लत लौ से घिरे पानी के बर्तन सूख जाते हैं
रोज़ रात को आँखों में नींद के आने का वादा रहता है लम्बी साअत के दोस्तों की तरह
जो आने के वादे पर कभी आ नहीं पाते.......
ऐसे ही वक़्त पर नींद नहीं आती
ख़्वाबों से मिले इक सदी जैसा वक़्त हुआ हो ............... अब बिना चश्मा लगाये पढना सीखना पढ़ेगा, पढ़ते-पढ़ते बेवक्त की नींद में चश्मे के कांच से टकरा कर ख्वाब लौट जाते हैं
शाम ,चाँद और ये नींद बेवजह ही खुद पर ज़ुल्म किये जाते हैं
Saturday, July 30, 2011
शाम से निगाह
शाम से निगाह तर लिबास खड़ी है
तुम्हारी किसी खिड़की के सहारे मेरी रात खड़ी है
आसमाँ के उस कोने पर चाँदनी खिल रही है
भेज दो घर उसे कि शाम ढल रही है
हर सफ़र मकामों को किनारे रखते गये
अब शहर से कैसे पूछें , जो घर जाये वो कौन सी गली है
दरिया की उस मौज को भी शायद पानी की तलब थी
बादलों के सूखने की शायद समंदर को भी खबर थी
शाम से निगाह तर लिबास खड़ी है
तुम्हारी किसी खिड़की के सहारे मेरी रात खड़ी है
Friday, July 22, 2011
ग़ज़ल
भेजे हैं आज एक अग्यार ने गुलाब हमें
ख़ुदा जाने अब मिले कौन सा अजाब हमें
बुलाते ही नहीं हैं वो महफ़िलों में हमको
जो कभी कहते थे रौनक-ए-बज़्म हमें
वही आजकल खुशबुओं का पता ढूंढ़ते हैं
जो कहते थे प्यार से शहर-ए-बहार हमें
कभी जिनको थी शिद्दत से आरज़ू हमारी
सुना है वही गिनते हैं अब दुश्मनों में हमें
उन्हें क्या कहें इस ख़ता, इस धूप के लिये
ख़त्म हो जायेंगे सब पेड़ इस सफ़र में क्या पता था हमें
भेजे हैं आज एक अग्यार ने गुलाब हमें
ख़ुदा जाने अब मिले कौन सा अजाब हमें
Thursday, July 7, 2011
कोई खुशबू ना बदन ना कोई साया था
वो जो खाब था पैराहन पहन के आया था
धुआँ ना धुंध ना अब्र का टुकडा कोई
कल की रात चाँद आँख बंद करके आया था
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आहटेँ लाशक्ल ही हसीन हैँ
हर आहट गर शक्ल मेँ तब्दील हो
तो तेरे इंतज़ार मेँ क्या बात रह जाये
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धूप मेँ पिघल जाती हैँ आरजुऐँ
छाँव के लिये घर मेँ दरख़्त रखना
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चाँद, सितारे, आफ़ताब क्या भरोसा कब बुझ जायेँ
उजाले के लिये घर मेँ तुम एक शम्मा जलती रखना
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न हसीन कोहसारोँ से
न खूबसूरत आबशारोँ से
ये रात बदलती है करवटेँ
आपकी आँख के इशारोँ से
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सुना था रात के उस मोड़ पर बैठ कर चाँद बरसोँ बरस ख़ाब बेचता था
वफ़ा,रंज ओ गम,वस्ल-ओ- जुदाई बेचता था
सुना है रात के उस मोड़ पर अब एक टूटा मकान है
उजड़ा दयार है वहाँ, जहाँ कभी चाँद रहा करता था
सुना है ये भी कि बड़ी मुफ़लिसी मेँ वक़्त कटा था उसका
कि सितारोँ की ईटोँ पर टूटा पलंग टिका था उसका
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चेहरा ज़हीन रखना लब पै गुलाब रखना
पलकोँ से मिलते हैँ ख़ाब कितने सबका हिसाब रखना
खुले तो आसपास शुआओँ से बिखर गये
एक सदी से जो बंद कर रखे थे खतों में अर्मान आपने
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सफेद कैनवास पर रात सिर्फ आपके लबोँ के निशान थे
सुबह तलक सारी कायनात ही कैनवास पर आ गयी
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इक बेलिबास सी आरज़ू दर्द लपेटे फिरती है
शब भर जला सितारोँ का शहर
रात अब ख़ाक समेटे फिरती है
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उससे न गिला करो न कोई शिकवा रखो
वो खुदा है उसे सिर्फ खुदा रखो
मत मिलाओ उसे इंसाँ मेँ उसमे मिलावट आ जायेगी
वो अभी साफ़ है उसे साफ़ ही रखो
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हर रंजिश निगाह की धूप सी
हर आँसू निगाह के सुकून सा
Tuesday, May 31, 2011
मैं जान पाऊं तुम्हें
देखा सुना सा कुछ भी नहीं
यहाँ सब का ग़म अपना निज़ी हुआ करता है
मैं जान पाऊं तुम्हें आखिर तक
या तुम जान सको मुझको
ये तो मुमकिन ही नहीं है
यहाँ तो दरमियाँ खुदाओं के भी
इक पर्दा सा हुआ करता है
Friday, May 27, 2011
वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा
वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा
इस फ़रारी में मेरा सर धुनता है
करेगा इक रोज़ ये चाँद भी ख़ुदकुशी
जो आज आसमाँ पर बैठ कर ख्वाब बुनता है
सब निगल जायेगा साहिलों से अबके
कोई इस समन्दर का शोर सुनता है
समझता हूँ सिर्फ उसे मैं, कि ग़म या कि वो ख़ुदा
जो गली के मोड़ पर बैठा फ़कीर गुनता है
वो तेरी चाहत, तेरा वस्ल, कुर्ब तेरा
इस फ़रारी में मेरा सर धुनता है
नज़्म
फूलों ने, आँखों ने, निगाहों ने, तमन्ना ने
देखा है उनका हसीं जमाल
साए भी ठहर कर नज़र देखते हैं
जुगनू भी रुक रुक कर पलक देखते हैं
देखा है फरिश्तों ने भी छुप छुप
उनका जलवा-ए- बेमिसाल
ख़ामोशी भी उनकी महकती है गुलाबों सी
चलो आज बात कर के भी देखते हैं
कैसा है उनकी बातों में कमाल
Thursday, May 26, 2011
ये यकीं है मुझको
ये यकीं है मुझको
नदी के पुल के उस पार तुमने लगाया था जो
वो गुलमोहर इस साल कुछ और जवां हुआ होगा
उतरे जो ये सैलाब,तो उस पार देख लूं
शाम यहाँ कुछ कुछ तन्हा हो कर गुज़रती है
सोचता हूँ माजरा-ए-ग़म पूछ लूं
जो आये कभी चाँद के साथ इस ओर
तो पेश्तर राह रोक के देख लूं
मुमकिन तो नहीं जुदाई सबसे
वगरना जी तो चाहे हर ओर से मुँह फेर लूं
Tuesday, May 17, 2011
तुमको लिखूँ कुछ तो
तुमको लिखूँ कुछ तो यूँ ही
तमन्ना चुपचाप हुए जाती है
न लिखूँ कुछ तो यूँ भी
बेज़ा शोर सा मचाती है
इक घड़ी की रात है अब बाकी
जाते हुए मेरे दामन पै ठहर जाती है
ये अश्क-ए-पैमाने की नहर साक़ी
यूँ ही चुपचाप रवां हुए जाती है
Thursday, May 12, 2011
ये तरतीब पसंद आये तो कहिये
इन अंधेरों के हसीं अफ़साने
उजालों की सियाही से लिख रहा हूँ
जुगनूओं कि इक सफ़ह से
बादाहाखाना रौशन कर रहा हूँ
ये तरतीब पसंद आये तो कहिये
अगले जुमे नए ख्वाब के साथ आने का अहद कर रहा हूँ
Tuesday, May 10, 2011
ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ?
ये चाँद के माथे पर निशाँ सा क्यूँ हैं ?
कल रात तो चांदनी थी, वो गिरा क्यूँ है ?
इक लम्हा मुस्कुराता हुआ तुमने आँखों में बंद किया था कल
तुम्हारी आँखों से आज ये अश्क का कतरा गिरा क्यूँ है?
तुम्हारे लफ्ज़ तो आतिशजुबाँ होते थे
ये ख़ामोशी सी तुम्हारे शहर में क्यूँ है?
हर रात कुछ उफ़क पर चमकता तो है
हर सुबह ये शोला सा ढलता क्यूँ है?
तन्हाई की बाहों में सिमट कर चलना
महफ़िल में ये नया चलन सा क्यूँ है?
खामोश रहें " शौक" तो सरगोशियाँ सी सुनाई पड़ती हैं
खामोशियों और आवाज़ में अज़ल से राब्ता क्यूँ है?
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
कि इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे
बर्ग-ए- आवारा सा सफ़र न वापस लाया तुम्हें
कि अब तो इन लचकती शाख़ों से जलन होती है मुझे
दम घुटता है, मुश्किल है साँस लेना अब
कि इन महकती फ़िज़ाओं से घुटन होती है मुझे
इन झीलों, सहराओं, औ शादाब बागीचों में भी कुछ नहीं
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
सिरहाने से मेरे कोई ख़ल्क उठा कर ले जाये
इस अजब तमाशे से थकन होती है मुझे
बर्ग-ए-आवारा सा सफ़र न वापस लाया तुम्हें
अब तो इन लचकती शाखों से जलन होती है मुझे
दम घुटता है , मुश्किल है साँस लेना अब
इन महकती फिज़ाओं से घुटन होती है मुझे
इन झीलों, सहराओं, औ शादाब बागीचों में भी कुछ नहीं
बड़ी बेचैनी है, कि अब गुलाबों से भी चुभन होती है मुझे
यूँ तेरे पहलू-ए-ख्वाब से उठ कर
यूँ तेरे पहलू-ए-ख्वाब से उठ कर
ज़माना कई बार सोया है नींद से उठ कर
वो जो आये थे हवाओं पै खेतों से निकल कर
उकता कर जा रहे हैं अब शहर से उठ कर
तज़्किरा शुरू हुआ जो वहाँ तेरा
फिर न जा सका कोई भी महफ़िल से उठ कर
चर्चा था कि शब-ए-माह होगी ज़मीं पर
लोग देखते रहे तमाम रात छतों पै चढ़ कर
सूख के फर्श पर खूँ-ए-ज़ख्म सोचता है
दाग-ए-निस्बत क्या मिला तुझे रगों से उठ कर
ज़माना कई बार सोया है नींद से उठ कर
वो जो आये थे हवाओं पै खेतों से निकल कर
उकता कर जा रहे हैं अब शहर से उठ कर
तज़्किरा शुरू हुआ जो वहाँ तेरा
फिर न जा सका कोई भी महफ़िल से उठ कर
चर्चा था कि शब-ए-माह होगी ज़मीं पर
लोग देखते रहे तमाम रात छतों पै चढ़ कर
सूख के फर्श पर खूँ-ए-ज़ख्म सोचता है
दाग-ए-निस्बत क्या मिला तुझे रगों से उठ कर
Monday, May 9, 2011
ये खून से रंगे हाथ नील में क्यों धो दिए? नील का सारा पानी लाल हो गया
अब ये समंदर को भी लाल कर देगी
पता है तुम्हें नील कितनी बड़ी है? साढ़े छः हज़ार किलोमीटर
नील छः हज़ार छः सौ पचास किलोमीटर लम्बी है . और यह समंदर में नहीं मेरे मन की गहरी खाइयों में
गिरती है. इसका पानी अब भी नीला ही है . खून का सब रंग इसके अन्दर चुपचाप बहता है
मेरे दिल तक आने वाली हर नीली नस नील ही तो है जिस के अन्दर ये खून चुपचाप बहता है
कांच के नाज़ुक ख्वाब (नज़्म)
रात जब तुम सो रही थीं, एक कांच का ख्वाब पलकों से फिसल गया
हथेलियों पै थाम लिया मैंने , टूट जाता तो तुम्हें तकलीफ होती
एक गुलाब, एक कैनवास, पेंटिंग ब्रुश, हरे रंग की आधी खाली शीशी, बैंगनी रंग की बन्द डिब्बी,
एक दुपट्टा, कुछ चूड़ियाँ, और चाय का एक ग्लास जिससे मेरी फोटो दबा रखी थी
उफ़! क्या क्या समेट के रखती हो ख्वाब में
गर फर्श पै गिर कर बिखर जाता, तो सुबह सब बीनने में दिक्कत होती तुम्हें
कांच के नाज़ुक ख्वाब पलकों पर टांग कर मत सोया करो गिरने का डर रहता है
चंद शेर
इस रूह को खलिश सी होती है
लो हम जिस्म उतारे देते हैं
................................
मेरी बेवफाई पै तंज न कीजे
ज़हन-ओ-दिल की मसाइल है
मेरी जुदाई पै रंज न कीजे
दहर-ओ-दस्तूर की मसाइल है
........................................
हर रंजिश निगाह की धूप सी
हर आँसू निगाह के सुकून सा
...................................
...................................
ग़ज़ल की तरतीब बड़ी हसीन होती है
खुदा रहे जब मस्जिद तभी ज़हीन होती है
.................................
चहेरों के आइनों की लिखावट बहुत ज़हीन थी
वो रात थी खवाब की इसीलिए तो हसीन थी
वो रात थी खवाब की इसीलिए तो हसीन थी
..............................
चेहरा ज़हीन रखना, लब पै गुलाब रखना
पलकों से मिलते है खवाब कितने, सबका हिसाब रखना
...............................
Sunday, May 8, 2011
खुदा का अक्स है मुझमे
खुदा का अक्स है मुझमे
और तुम इंसान ढूंढ़ते हो
काबा सी मेरी ये दो आँखें
और तुम इमां ढूंढ़ते हो
तमाम रात पै लम्स हैं
और तुम लबों के निशान ढूंढ़ते हो
निगाह चाँद पलक
निगाह, चाँद, पलक कोई और बात होगी
तमाम सदी से सुलग रहा है आफ़ताब
कहीं तो रात होगी
निगाह, चाँद, पलक कोई और बात होगी
धुंआ सा है इब्तिदा पर
धुंआ सा है इब्तिदा पर, इंतिहा तलक क्या होगा
दो क़दम पै ही दीख गया काबा, आखिर-ए-सफ़र तलक क्या होगा
हुआ तो होगा यूँ भी की कभी मंजनू ने कहा होगा
उफ़!! लैला इस ज़माने में कैस सा नाकाम कोई और क्या होगा
सवाल-ए-चुप्पी पर लैला ने तहरीर दिया होगा
देख ले कैस इन शादाब सी बेलों में लैला सा ज़र्द पत्ता कोई और क्या होगा
धुंआ सा है इब्तिदा पर, इंतिहा तलक क्या होगा
Saturday, May 7, 2011
अब और न धागे सा उलझा मुझको
अब और न धागे सा उलझा मुझको
जो खुदा है तो सुलझा मुझको
है खबर मुझे भी की न गुजरेंगे अब बादल
जो चाहे तो ज़माने की खुशी के लिए रुला मुझको
यूँ तो निभ ही जाती फुरसतों से मेरी
सवाल रोज़गार का याद आ गया मुझको
हर सिम्त है अँधेरा घुप सा
जो रहबर है तो राह दिखा मुझको
चंद शेर
गर कुबूल हो जाये ये दुआ भी
जान लूँ हस्ती है कहीं तेरी खुदा भी
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न इश्क उन्हें ही था, न इश्क हमें ही था
ये सादा सा फरेब मगर साथ सालों रहा
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इस आँख के दरिया में डूब के देखो
इक धार सी सीधी जाती है दिल को
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ये स्याह सफ़ेद से रात दिन मुझे
दो हिस्सों में तकसीम दिए देते है
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इस शमा को दलील-ए-सहर न समझना
धुंए में आग भी होती है, बस धुँआ न समझना
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आलम-ए-हिज्र औ तन्हाई का मौसम
आलम-ए-हिज्र औ तन्हाई का मौसम
उस पर से ये वक़्त था ठहरा
पलकों पर भी नहीं रुक सकता था
उनका वो गम था बड़ा गहरा
चाह के भी तारे न चमक पाए
किस जोर से था रात का पहरा
आगोश-ए- मुब्ब्हत में मुश्किल है बसर करना
खिलते हुए फूलो में दीखता नहीं सहरा
ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
ज़िक्र उनका यहाँ गुनाह सा है
जबकि अब भी वो खुदा सा है
सुनते है उनकी बातों में कोई असर नहीं
अब भी जिनका हर लफ्ज़ दुआ सा है
देखिये ले जाएँ अबके बदगुमानियां कहाँ
इस राह पर हर सिम्त धुँआ सा है
आलम-ए- शौक, तमन्ना और नर्गिस के फूल
यकीं मनो उनका घर अब भी आग्रा सा है
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